Tuesday, September 11, 2012

मैं क्या बनूँ जड़ या फिर फल ...

    
           मैं क्या बनूँ  जड़ या फिर फल...
जड़ें ...
मिट्टी के अन्दर होती हैं ...
जहाँ पानी और पोषण तो रहता है ...
पर हवा ढंग से पहुँच नहीं पाती है ...
लेकिन ...
उनका  जीवन तो जड़ ही होता है ...
फल ...
जो ऊँचाई पर उगते हैं ...
खुली हवा खाते हैं ...
तोड़ें जाते हैं ...
किसी की भूख मिटाते हैं ...
किसी बीमार का पथ्य बन जाते हैं ...
कई हाथों से गुजरते हैं ...
दुनिया देखते हैं ...
और दुनिया के काम आते  हैं ...
लेकिन ...
उनका  जीवन भी तो जड़ ही होता है ...
और हमेशा मुझे ...
एक सवाल खाए जाता है कि  ...
मैं क्या बनूँ  जड़ या फिर फल ...
काश मैं ये समझ पाती कि ...
मैं क्या करूँ  ???


                                           अंजु  सिन्हा  ...


4 comments:

  1. मैं क्या बनूँ जड़ या फिर फल ...
    काश मैं ये समझ पाती कि ...
    मैं क्या करूँ ???
    बहुत हि सुन्दर भावों को प्रभावी शब्द दिए हैं आपने.खूबसूरत रचना !!

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  2. तुम सिर्फ चेतनशील बनो......

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  3. तुम तना बन जाओ....
    संबल बनो वृक्ष का...कड़ी बनो जड़ और फल के बीच की.....
    तुम्हारा होना ही सब कुछ हो जैसे....
    :-)

    अनु

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