Thursday, August 23, 2012

ये बचपन कैसे बीत जाता है ...

  ये बचपन कैसे  बीत जाता है ...

जब दीवाली के पटाखें में,
शोर सुनाई देता है ...
उनसे उठने वाले धुएं में,
प्रदूषण  नजर  आता ...
जब जलती हुई फुलझरियां में,
जलता पैसा नजर आता है ...
 जब थोड़ी सी खुशियाँ मानाने में
समय नष्ट होने होने लगता है ...
तब समझ में आता है,
ये बचपन कैसे बीत जाता है ...
जब आँखों की भोली उत्सुकता  
संदेह में बदलने लगती है ... 
जब छोटी-छोटी जिज्ञासाएँ, 
प्रश्नों के सागर बन जाती है...
जब घर-आँगन के बहार भी, 
एक दुनिया नजर आती है ...
जब सामाजिकता और परिस्थितियाँ, 
ज़िम्मेदारियाँ नई लाती है ....
तब समझ में आता है,  
ये बचपन कैसे बीत जाता है ...
जब बमों और बदुकों का स्वर, 
साधारण पटाखें नजर आते है ...
जब चंदा मामा  प्यारे न रहकर, 
पत्थर का ढ़ेर बन जरे है ...
जब सूरज नहीं चलता , 
पृथ्वी घूमने लगती है ...
जब जीवन  की स्थिरता और गति, 
सापेक्षित  लगाने लगे ...
तब समझ में आता है,  
ये बचपन कैसे बीत जाता है ....
जब आसमान सपना हो जाता है, 
धरती तक दुर्लभ लगती है ...
मेहनत समझ में आता है , 
कठिनाईयाँ जीवन का सच बोलने लगती है ...
जब पिता और माँ का हाथ भी,
सुरक्षा में अस्मर्थ हो जाता है ...
जब जीवन रूपी यह संघर्ष,
मानसिक परिपक्वता लता है ...
तब समझ में आता है,  
ये बचपन कैसे बीत जाता है ...
   
                                                  अंजु  सिन्हा ...

  

5 comments:

  1. भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  2. 'जहाँ' रहते थे कभी, काश...!उस 'जहाँ' में फिर लौट जाते | सही में बचपन क्यूँ बीत जाता हैं???
    आपने अपने मनोभावों को बड़ी सरलता व सहजता से प्रस्तुत किया है |अतिसुंदर रचना|

    मेरा ब्लॉग आपके इंतजार में,समय मिलें तो बस एक झलक-"मन के कोने से..."
    आभार...|

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  3. वे दिन ...

    शुभकामनायें आपको !

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  4. बचपन की वो बीती बातें
    मीठी यादें, मीठी रातें ......

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  5. सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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