Sunday, November 11, 2012

धनतेरस

                                                           धनतेरस 




पांच दिवसीय दीपावली पर्व का आरंभ धन त्रयोदशी से शुरू  होता है ...  धन त्रयोदशी के दिन धन के देवता कुबेर और मृत्यु  के देवता यमराज की पूजा का विशेष महत्व है ...  कार्तिक मास की कृष्ण त्रियोदशी को भगवान धन्वन्तरी का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है ... कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय आज के दिन ही भगवान धन्वन्तरी अमृत से भरा कलश लेकर प्रकट हुए थे ... इसलिए आज के दिन बर्तन खरीदने की परम्परा है ... आज के  दिन सायंकाल को मुख्य द्वार पर दीपक जलाने की प्रथा भी सदियों से चली आ रही है ... इस प्रथा के पीछे एक लोकप्रथा है कि  ....  किसी समय में हेम नामक राजा को दैव कृपा से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ... ज्योतिषों के मुताबिक़ जब बालक का  विवाह होगा उसके चार दिन बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा ... राजा को इस बात से काफी दुःख हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह भेज दिया ... जहाँ किसी स्त्री की परछाई भी उसपर ना पड़े ...  दैवयोग के दिन एक राजकुमारी उधर से गुज़री ... और दोनों एक दुसरे को देखकर मोहित हो गयी ...  और दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया ... विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया ... और विवाह के चार दिन बाद यमदूत राजकुमार का प्राण लेने आ पहुंचे ... जब यमदूत राजकुमार का प्राण ले जा रहे थे  उस वक्त नवविवाहिता राजकुमारी का विलाप सुनकर यमदूत  का हृदय द्रवित हो उठा ... लेकिन विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना था  ....  यमराज जब यमदूत को आज्ञा दे रहे थे ... उसी समय एक दूत ने विनती की हे यमराज  क्या कोई ऐसा उपाय नहीं, जिससे मनुष्य वकाय मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए ... दूत के अनुरोध सुनकर यमराज बोले ... हे दूत वकाय मृत्यु तो कर्म की गाति है ... लेकिन इससे मुक्ति पाने का एक आसान तरीका मई तुम्हे बताता हूँ ... कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात को जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दक्षिण आज के दिन यमराज की पूजा अर्चना करने से असामयिक मृत्यु से बचा जा सकता है ... उसी समय से लोग अकाल मृत्यु ले मुक्ति पाने के लिए आज के दिन  सायंकाल को अपने द्वार पर दीपक जलाते हैं ....
आज की भाग- दौड़ भरी जिंदगी  और तेजी से बदलती जीवन शैली में भी धनतेरस की परंपरा कायम है ... सभी वर्ग के लोग कई महत्वपूर्ण चीज़े खरीदने के लिए इस पर्व का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं ... आज के दिन लोग सोने-चांदी के बर्तन, सिक्के और आभूषण खरीददारी  करते हैं ....
बदलते दौर के साथ लोगों की पसंद भी बदल गयी है ... अब लोग बर्तन , आभूषण  के आलावा वाहन, मोबाईल आदि  भी ख़रीदे जा रहे हैं ... आज के दिन गाड़ी खरीदना लोग शुभ मानते हैं ...
रीति - रिवाजों  से जुड़ा धन्तेरस आज व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का सूचक बन गयी है ... एक तरफ उच्च और मध्य वर्गीय लोग धनतेरस के दिन विलासिता से भरपूर वस्तुएं खरीदते हैं ... तो वहीं दूसरी ओर निम्न वर्गीय लोग  जरुरत की वस्तुए खरीद कर इस पर्व को मानते हैं ...


                                                                     अंजू सिन्हा ...

Friday, November 2, 2012

दुनिया में खुश कौन है ...

                                                        
दुनिया में खुश कौन है ...
                                         दुनिया में खुश कौन है ...
 दुनिया में खुश वही है ...
 जो जानकर भी अनजान है ...
 जो समझ कर भी अनजान है ...
 जो सदस्य होकर भी अनजान है ...

 दुनिया में खुश वही है ...
 जिसके लिए नहीं है कोई समाज ...
 जिसके पास रहता है एक साज ...
 जो बजाता है सिर्फ अपना राग ...

 दुनिया में खुश वही है ...
 जिसे किसी से मतलब नहीं ...
 जिसके  लिए कुछ गौरतलब नहीं ...
 जिसके लिए "मैं" में सिमटा है  सब ...

 दुनिया में खुश वही है ...
 जिसकी रहती हैं आँखें बंद ...
 जिसके लिए एक है दुनिया के रंग ...
 जिनसे  कोई अलग नहीं, ना ही है कोई संग ...

 दुनिया में खुश वही है ...
 जो शायद कुछ करता नहीं ...
 किसी के दुःख में  आंहें  भरता नहीं ...

 हाँ , दुनिया में खुश वही है ...
 जिसके लिए हर चीज सही है ...
 जिसे किसी से कुछ मतलब नहीं ...
 जिसके लिए कुछ भी ग़लत नहीं ...


                                             अंजु  सिन्हा 
 

Tuesday, September 11, 2012

मैं क्या बनूँ जड़ या फिर फल ...

    
           मैं क्या बनूँ  जड़ या फिर फल...
जड़ें ...
मिट्टी के अन्दर होती हैं ...
जहाँ पानी और पोषण तो रहता है ...
पर हवा ढंग से पहुँच नहीं पाती है ...
लेकिन ...
उनका  जीवन तो जड़ ही होता है ...
फल ...
जो ऊँचाई पर उगते हैं ...
खुली हवा खाते हैं ...
तोड़ें जाते हैं ...
किसी की भूख मिटाते हैं ...
किसी बीमार का पथ्य बन जाते हैं ...
कई हाथों से गुजरते हैं ...
दुनिया देखते हैं ...
और दुनिया के काम आते  हैं ...
लेकिन ...
उनका  जीवन भी तो जड़ ही होता है ...
और हमेशा मुझे ...
एक सवाल खाए जाता है कि  ...
मैं क्या बनूँ  जड़ या फिर फल ...
काश मैं ये समझ पाती कि ...
मैं क्या करूँ  ???


                                           अंजु  सिन्हा  ...


Tuesday, September 4, 2012

घर बनाते देखी हूँ ...

  घर बनाते देखी हूँ ...
                                    
तिनके जोड़ कर लोगों को  ....
घर बनाते देखी हूँ ...
बाढ़ में बहने से ....
घर बचाते देखी हूँ ...
गिरते हुए घर को .....
मजबूत करवाते देखी हूँ ...
और गुस्से में लोगों को ...
घर जलाते भी देखी हूँ ...
लेकिन , कभी गिराने के लिए ...
अपने ही हाथों से ...
किसी को घर सजाते नहीं देखी हूँ ....
                                            अंजु सिन्हा 

  

Monday, September 3, 2012

अकेलेपन .....

अकेलेपन .....

अकेलेपन .....
तुझसे मैं क्या शिकायत करूँ ....
मैं ही तो खींच लाई हूँ तुझे ...
क्योंकि मैं अकेले रहना चाहती  हूँ ...
 शायद मेरे रग-रग में ...
 समाई है गुटनिरपेक्षता ...
फिर भी मैं खुश हूँ ...
तुझे पाकर ...
क्योंकि तू स्थायी है ...
और गर्व है मुझे ...
तेरी इस स्थायित्व पर ...
तेरे साथ जी- मर सकती हूँ मैं ....
 अकेलेपन .....
तुझसे मैं क्या शिकायत करूँ ....
                                              अंजू  सिन्हा ...






Thursday, August 23, 2012

ये बचपन कैसे बीत जाता है ...

  ये बचपन कैसे  बीत जाता है ...

जब दीवाली के पटाखें में,
शोर सुनाई देता है ...
उनसे उठने वाले धुएं में,
प्रदूषण  नजर  आता ...
जब जलती हुई फुलझरियां में,
जलता पैसा नजर आता है ...
 जब थोड़ी सी खुशियाँ मानाने में
समय नष्ट होने होने लगता है ...
तब समझ में आता है,
ये बचपन कैसे बीत जाता है ...
जब आँखों की भोली उत्सुकता  
संदेह में बदलने लगती है ... 
जब छोटी-छोटी जिज्ञासाएँ, 
प्रश्नों के सागर बन जाती है...
जब घर-आँगन के बहार भी, 
एक दुनिया नजर आती है ...
जब सामाजिकता और परिस्थितियाँ, 
ज़िम्मेदारियाँ नई लाती है ....
तब समझ में आता है,  
ये बचपन कैसे बीत जाता है ...
जब बमों और बदुकों का स्वर, 
साधारण पटाखें नजर आते है ...
जब चंदा मामा  प्यारे न रहकर, 
पत्थर का ढ़ेर बन जरे है ...
जब सूरज नहीं चलता , 
पृथ्वी घूमने लगती है ...
जब जीवन  की स्थिरता और गति, 
सापेक्षित  लगाने लगे ...
तब समझ में आता है,  
ये बचपन कैसे बीत जाता है ....
जब आसमान सपना हो जाता है, 
धरती तक दुर्लभ लगती है ...
मेहनत समझ में आता है , 
कठिनाईयाँ जीवन का सच बोलने लगती है ...
जब पिता और माँ का हाथ भी,
सुरक्षा में अस्मर्थ हो जाता है ...
जब जीवन रूपी यह संघर्ष,
मानसिक परिपक्वता लता है ...
तब समझ में आता है,  
ये बचपन कैसे बीत जाता है ...
   
                                                  अंजु  सिन्हा ...

  

Wednesday, August 22, 2012

आखिर क्या है ज़िन्दगी ...


 
ज़िन्दगी ...
एक सुहाना सफ़र ...
या  है तनावों का घर ?
                       ज़िन्दगी ...
                        एक  ख़ुशनुमा स्वपन ...
                        या एक ख़्वाब, जिसमें  भरा  है  ग़म ?
ज़िन्दगी ...
एक  प्यार का गीत ...
या है ये दुखों की मीत ?
                         ज़िन्दगी ...
                         एक लाभदायक समझौता ..
                          या  है ये सपनों का टुटा घरौंदा  ?
ज़िन्दगी ...
पुरी होती  चाह ...
या है एक  कठीन राह ?
                         ज़िन्दगी ...
                          त्याग या बलिदान ...
                           या फिर ज़रूरत  से ज्य़ादा खींची कमान ?
ज़िन्दगी ...
खुशियों  का पैग़ाम ...
या फिर ग़मों की दास्तान ?
ज़िन्दगी ...
क्या ???
आख़िर है क्या ???
                                        अंजु  सिन्हा 

देखा है उसको ...

                     
                       

देखा है उसको ...
अपने बच्चों के लिए  तड़पते हुए ...
उसकी सफलता पर अकड़ते  हुए...
कष्टों में उसे सिहड़ते हुए ...
                      देखा है उसको ...
                      सुखी रोटी के तुकड़े निगलते हुए ...
                      पर बच्चों के पेट भरते हुए...
                       और अपने कर्तव्यों को करते हुए ...
देखा है उसको ...
ज़िन्दगी के संघर्षों से जूझते हुए...
मौत के कुएं में कूदते हुए...
दुःख के घुटों को घूंटते हुए...
                   देखा है उसको ...
                   माँ का  पवित्र नाम बचाने के लिए ...
                   जहाँ  के सारे दुःख  अपने ऊपर लिए ...
                    बदले में हम सिर्फ उसे माँ कह दिए...

                                                     अंजु  सिन्हा



हमको मोहब्बत है जिंदगी से .....






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                       अंजु  सिन्हा